मेरी यह टिप्पनी चिठ्ठाचर्चा http://chitthacharcha.blogspot.com/2010/01/blog-post_03.html से अलग की गई है. कृपया बतायें कि इसमें ऐसा क्या लिखा है जो इसे अलग करना पड़ा?
राजेश स्वार्थी ने आपकी पोस्ट " ज्ञानविमुख हिन्दी का चिट्ठाकार… " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
सिरफ चिट्ठा चर्चा या चर्चा के अन्य मंच ही क्यों, इस बात को आप सभी ब्लोगों के लिये कह देते। बस कहना ही तो था। सब शटर गिरा कर घर चले जाते। उनके नाम भी गिनवा दिजिये जो हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और हिन्दी ब्लोगरी की भी।
क्या मुझे अपनी बात कहने या पुछने का अधिकार नहीं है. न तो मैने किसी पर आछेप लगाया और न ही अस्लील भाषा का इस्तेमाल किया है.
भई ये हिन्दी-सेवा, हिन्दी-सेवा बचपन से सुनता चला आ रहा हूं ...हिन्दी की मरहम-पट्टी / सेवा-श्रूषा का तात्पर्य मुझे आजतक समझ नहीं आया. अलबत्ता इस घालमेल में आजतक जो लोग मुझे मिले वे कुछ इस तरह के थे,
ReplyDelete1. बहुत कड़ी (क्लिष्ट) हिंदी जानते थे पर अंग्रेज़ी थोड़ी- बहुत ही जानते थे
2. ठीक-ठाक हिंदी जानते थे व कामचलाउ अंग्रेज़ी भी
3. दोनों ही भाषाएं गुजारे लायक जानते थे
4. दोनों ही भाषाएं कुछ-कुछ जानते थे, या कह लीजिए कि दोनों ही भाषाएं ठीक से नहीं जानते थे.
इस बारे में, पहले नंबर वाले सबसे मुखर मिले, दूसरे वाले कभी-कभी हां मिलाने में बुरा नहीं मानते थे, तीसरी जगह वालों को इस सारी सेवा-एवा से कोई मतलब नहीं रहा. व चौथी जगह वालें इस मुद्दे पर मेरी ही तरह बग़लें झांकते मिले...
’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’
ReplyDelete-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.
नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'
कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.
-सादर,
समीर लाल ’समीर’
दरअसल हर व्यक्ति के भीतर एक हिटलर कुनमुनाता रहता है, जो मौका बे मौका जाग जाता है। उसकी कमबख्त का नतीजा है ये, और क्या कहाजाए।
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लखनऊ बना मंसूरी, क्या हैं दो पैग जरूरी?
2009 के ब्लागर्स सम्मान हेतु ऑनलाइन नामांकन चालू है।
हाँ यह फरियाना तो बहुत जरूरी था
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