Monday, October 19, 2009

मारो..मारो..समीर जी, क्या मतलब है इसका?



आज समीर लाल जी की उड़न तश्तरी पर ’मारो मारो..’ पढ़ रहा था.

देखकर आश्चर्य लगा कि क्या समीर जी उन लोगों को उलाहना दे रहे हैं, जिन्होंने नें उनकी उत्कृष्ट पंक्तियों को शुभकामना देने का जरिया बनाया या उन लोगों को जो मास ईमेल क जरिये सभी को एक साथ बिना जाने पहचाने संदेश भिजवाते हैं या उनको जो शुभकामना के नाम पर पोस्ट पर पोस्ट किये जा रहे हैं या उनकी मंशा कुछ और ही है.

जानता हूँ कि समीर लाल जी की लेखनी सक्षम है इतने सरे लोगों को एक साथ लपेट लेने के लिए. वो ऐसा लिख सकते हैं जिससे आपको लगे उसे बोला है और उसे लगे आपको. फिर भी सब मुस्कराते रहें और समीर जी हँसते रहें.

असमंजस में था कि आखिर वो संदेश क्या देना चाह रहे हैं?

समीर जी यूँ ही कुछ नहीं कहते और लिखते. हमेशा उसमें कुछ और मायने होता है.

जब बात समझ न आ पाई तो मैने हिम्मत करके उन्हें ईमेल किया:

समीर सर, आपका आलेख ’मारो मारो’ पढ़ा. बहुत अच्छी पंक्तियाँ हैं शुभकामना की. मेरी बधाई. किन्तु इस आलेख के माध्यम से आप किसको इंगित कर रहे हैं, यह मेरी समझ से परे हो रहा है. कभी लगता है कि आप जिसने आपकी रचना चुराई, उसे कह रहे हैं और कभी मास ईमेल करने वालों को या कभी कुछ और. क्या आप मुझे स्पष्ट करेंगे


मुझे पूरी आशा थी कि समीर जी मौन साध लेंगे या कहेंगे कि जिसको जैसा समझना है, वैसा समझ ले किन्तु मेरी आशा के विपरीत, मुश्किल से पाँच मिनट में उनका जबाब आया और उसे देख कर मैं दंग रह गया. बहुत दुख हुआ और शरम आई मुझे अपनी सीमित सोच पर. मैं भीं कहाँ आस पास उलझा रहा:

प्रिय राजेश,

आशा करता हूँ दिवाली सपरिवार मौज मस्ति में बीती होगी. इधर कुछ व्यस्ततायें बढ़ी हैं तो परिणाम स्वरुप संपर्क में बने रहना भी कम हुआ है, क्षमाप्रार्थी हूँ.

तुम्हारी जिज्ञासा बहुत स्वभाविक है और आम तौर पर पाठक इन्हीं विषयों पर इसे इंगित जानेगा. यकीन मानो, शुभकामनाओं के लिए इस्तेमाल की गई मेरी पंक्तियों से मैं गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ कि मेरे लेखन को इस योग्य समझा गया. इसमें क्षोब या किसी पर कैसा कटाक्ष कसना. यह तो लेखन की सफलता है और मित्रों का स्नेह दर्शाता है.

जब मैं यह आलेख लिख रहा था, तब भी और अब भी मेरे मन की बात तो यह है कि चलो, मेरा बम तो शुभकामना का फूल था..लौटा भी तो खुशबू लेकर, खुशियाँ लेकर लेकिन जो बिम्ब बम का मैने चुना ..उस बम की प्रवृति ही यही है. यहाँ खुशियाँ फेकी, वहाँ से खुशियों लौटी. उनकी सोचो जो न्यूक्लियर बम बना रहे हैं, केमिकल बम, वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन, आतंकवाद का बम, मजहब के भेदभाव और घृणा का बम, वैमनस्य का बम -उनके पास क्या लौटेगा?

जो मैने सृजन किया, सृजन कर फैलाया वो मेरे पास लौटा. यही क्या इन पर भी नहीं लागू होगा.

काश, इस छोटी सी घटना से वो बड़े मानव कुछ बड़ी सीख लेते. कुछ समझ पाते. यही कहना चाहता था इस आलेख के माध्यम से.

बाकी तो तुम खुद समझदार हो. संवेदनशील हृदय रखते हो, बेहतर मायने खुद निकाल पाओगे.

संपर्क और स्नेह बनाये रखना.

सादर

समीर लाल ’समीर’


अब मेरे लिये बस इतना ही कहने को बचता है कि ’धन्य हो गुरुदेव समीर लाल जी आप और नमन है आपकी सोच और लेखनी को

आशा करता हूँ इस वार्तालाप को सार्वजनिक करने में समीर लाल जी बुरा नहीं मानेंगे. उनकी स्माईली वाली स्वीकृति आ गई है.

8 comments:

  1. राजेश भैया,

    ऐसे ही कोई माना है समीर जी को अपना गुरुदेव...

    जय हिंद...

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  2. इस आलेख का इतना गंभीर अर्थ था .. शायद ही कोई समझ पाया हो !!

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  3. उलझा दिये न समीर भैया आपको -अरे भाई पूरे साल कोई दुआ सलाम नहीं बस दिवाले और होली क्या आयी लगे स्नेह का गोला फेंकने ! बस इसी प्रवृत्ति पर प्रहार था उनका -हमसे पूछिए ना !

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  4. हमका तो अरविंदो जी की बात ठीकै लागत हैं..

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  5. अरविन्द जी का कहना एकदम सही लग रहा है...

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  6. राजेश जी आपका आभार के आपने पत्र और पत्रोत्तर के माध्यम से समीर जी की पोस्ट का सही मंतव्य जन जन तक पहुँचाया।

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  7. समीर भाई का दिल इतना बड़ा है जो उसमे समाये हैं वे ही जानते है उनके इस लेख का अभिप्राय । अब इस दिल से बाहर रहने का "दुर्भाग्य" किसी का हो तो मुझे पता नहीं ।

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